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Thursday 28 December 2017

"2018: राजनीति में तनाव, टकराव और चुनावी तैयारी का साल

"2018: राजनीति में तनाव, टकराव और चुनावी तैयारी का साल Original 28 Dec. 2017 urmilesh फ़ॉलोअर्स 97462 फॉलो करें PM Narendra Modi, Rahul Gandhi. Source: Google Images सन् 2018 में देश के आठ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं और 2019 में देश का आम चुनाव होना है। इस वक्त देश में जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति प्रभावी है, उसे देखते हुए मेरा अनुमान है कि 2018 राजनीतिक तौर पर तनाव और टकराव का साल रहेगा। सिर्फ राजनीति में ही नहीं, समाज और समुदायों के बीच रिश्तों का तीखापन और बढ़ सकता है। इसके संकेत अभी से मिलने लगे हैं। कई राज्यों में सरकारें अपने राजनीतिक विरोधियों या असहमति रखने वालों के साथ कटुता और शत्रुता के साथ पेश आ रही हैं। कई मामलों में तो कानूनी प्रावधानों और संवैधानिकता का भी ध्यान नहीं रखा जा रहा है। चुनावी समीकरणों को अपने-अपने पक्ष में करने की सियासी दलों की जद्दोजहद में सामाजिक और सामुदायिक रिश्तों का ताना-बाना बिखरता नजर आ रहा है। हमारी कामना है कि नया वर्ष इस प्रवृत्ति से देश को उबारे। पर फिलवक्त, हालात से मिल रहे संकेत बहुत आश्वस्त नहीं करते। Picture for representation. Source: Google Images अभी कुछ ही दिनों पहले केंद्रीय मंत्रिपरिषद के दो सदस्यों क्रमशः अनंत कुमार हेगडे़ और हंसराज अहीर द्वारा दिये बयानों से भी भावी राजनीतिक परिदृश्य की असहजता के संकेत मिलते हैं। हेगड़े का यह बयान कि 'हम लोग संविधान बदलेंगे' पहली बार नहीं कहा गया है। संघ परिवार से जुड़े अनेक लोग यह बात पहले भी कह चुके हैं। प्रौद्योगिकी के मौजूदा दौर में हर तथ्य रिकार्ड होता जाता है। यहां याद दिलाना जरूरी है कि इससे पहले भाजपा-नीत एनडीए-1 की वाजपेयी सरकार के दौर में संविधान-समीक्षा के नाम पर बाकायदा एक आयोग गठित किया गया था। पर उस दौर में भाजपा को अपने बल पर पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त था, सरकार चलाने के लिये वह अपने गठबंधन-घटकों पर निर्भर थी। इसके अलावा उस वक्त के आर नारायणन जैसे सेक्युलर और वैज्ञानिक मिजाज के विद्वान देश के राष्ट्रपति थे। इन दो कारणों से संघ परिवार की संविधान समीक्षा या उसमें इच्छित बदलाव की आकांक्षा पूरी नहीं हो सकी। संघ परिवार के नेतृत्व ने संविधान के अनुच्छेद-370, समान आचार संहिता और संविधान के प्रिएंबुल में दर्ज भारतीय राष्ट्र-राज्य के सेक्युलर चरित्र रखने जैसे कई प्रावधानों को खत्म कराने की ठान ली थी। उस कोशिश में विफल रहने के बाद भी समय-समय पर ऐसे मुद्दों को संघ-भाजपा की तरफ से उछाला जाता रहा। सन् 2018 में संविधान के कतिपय प्रावधानों पर नये सिरे से विवाद पैदा करने की कोशिश की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। पर भाजपा चाहेगी कि अपने इस एजेंडे को सन् 2019 के संसदीय चुनाव को जीतने के बाद ही वह अमलीजामा पहनाने में जुटे। इसके लिये भाजपा को हर हालत में अगला संसदीय चुनाव भी जीतना होगा। तब तक राज्यों में जीत का सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो राज्यसभा में भी उसे प्रचंड बहुमत मिल जायेगा और फिर वह मनचाहे संविधान संशोधन के लिये सक्षम होगी। Picture for representation. Source: Google Images हाल की लगातार चुनावी जीतों से भाजपा और सरकार, दोनों अपनी उपलब्धियों पर न सिर्फ मुग्ध हैं अपितु भविष्य के लिए आश्वस्त भी नजर आ रही हैं। लेकिन दोनों के समक्ष चुनौतियां कम नहीं हैं। सरकार के लिये सबसे बड़ी चुनौती है-अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करते हुए रोजगार-सृजन की बड़ी पहल करना। इस मामले में सरकार के अपने आंकड़े उसके दावों को खोखला साबित करते हैं। कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में ज्यादा निवेश बढ़ाने के लिये सरकार को नये वित्तीय प्रावधान करने होंगे। बैंकिंग क्षेत्र की चुनौतियां भी कुछ कम नहीं हैं। देखना होगा, नये वर्ष में इन क्षेत्रों में क्या-क्या नई पहल होती है! इस वर्ष की तरह अगला वर्ष भी पड़ोसी मुल्कों के साथ रिश्तों के मामले में बहुत सुखद और खुशगवार नहीं दिख रहा है। भारत-पाकिस्तान तो स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना के वक्त से ही एक-दूसरे के आमने-सामने हो गये लेकिन हाल के दिनों में भारत के रिश्ते मालदीव, श्रीलंका और नेपाल जैसे निकटस्थ देशों से भी लगातार खराब हुए हैं। चुनावी वर्ष या चुनावी तैयारी के वर्ष में भारत-पाकिस्तान रिश्तों के सुधरने की गुंजायश कम दिखती है। अगर सुधर जाये तो दोनों मुल्कों के अवाम के लिये बड़ा तोेहफा होगा। आर्थिक मोर्चे पर भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़ी कामयाबी की अटकलें लगाई जा रही हैं। पर इसका फायदा क्या आम जन को मिलेगा? क्या हमारा मानव विकास सूचकांक सुधेरगा, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा? क्या रोजगार सृजन का विस्तार होगा? फिलवक्त, दुनिया के 180 मुल्कों की सूची में मानव विकास के मामले में भारत का स्थान 131 वां है। असमानता के मामले में यह आंकड़ा और भी बढ़ा हुआ्र है। 180 देशों की सूची में भारत 135वें नंबर पर है। शेयर-बाजार और सेंसेक्स के उछाल कुछ भी बतायें, आम जन के लिये संकेत बहुत सकारात्मक नहीं हैं। Aadhaar cards. Source: Google Images नये वर्ष में 'आधार' का मुद्दा और गरमा सकता है। ससंद से न्यायालय तक मसले नये सिरे से उठ सकते हैं। अंततः न्यायिक स्तर पर ही इस मसले के समाधान का देश को इंतजार करना होगा। लेकिन जिस तरह शासन की तरफ से निजता(प्राइवेसी) के मूल नागरिक अधिकार की लगातार अनदेखी की जा रही है, उसके संकेत बहुत अच्छे नहीं हैं। इससे आम नागरिकों की तमाम तरह की निजी सूचनाओं के न केवल सार्वजनिक हो जाने अपितु उनके निहित स्वार्थों द्वारा अपने हित में इस्तेमाल के अनेक मामले सामने आ रहे हैं। Picture for representation. Source: Google Images सन् 2018 में जिन 8 राज्यों- कर्नाटक, मेघालय, नगालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव होने हैं। वर्ष के पूर्वार्द्ध में जिन चार राज्यों में चुनाव होना है-वे हैं कर्नाटक, नगालैंड, मेघालय और त्रिपुरा। यह महज संयोग नहीं कि गुजरात चुनाव खत्म होने के अगले ही दिन प्रधानमंत्री मोदी मेघालय के दौरे पर गये। इधर, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी कर्नाटक के कई दौरे कर चुके हैं। अभी हाल ही में कर्नाटक से केंद्रीय मंत्रिपरिषद के सदस्य अनंत हेगड़े ने संविधान बदलने सम्बन्धी विवादास्पद बयान देकर माहौल को गरमा दिया है। वह और उऩकी पार्टी टीपू सुल्तान जैसे ब्रिटिश-राज विरोधी योद्धा की जयंती मनाने के कर्नाटक सरकार के फैसले के खिलाफ लगातार अभियान चलाते रहे हैं। समझा जाता है कि कर्नाटक में आम जनता के वास्तविक मुद्दों की कीमत पर ऐसे गैर-जरूरी और भड़काऊ मसलों को चुनाव के दौरान ज्यादा उछालने की कोशिश की जायेगी। गुजरात चुनाव में प्रचार अभियान के गिरे स्तर से भी लगता है कि खासतौर पर कर्नाटक और त्रिपुरा में माहौल तनावपूर्ण रहेगा। कर्नाटक कांग्रेस-शासित राज्य है जबकि त्रिपुरा माकपा-शासित। येन केन प्रकारेण, दोनों राज्यों में भाजपा अपनी सरकार बनाने के लिये काफी समय से बेचैन है। कर्नाटक देश का एक मात्र बड़ा राज्य है, जहां इस वक्त कांग्रेस शासन में है। ज्यादातर बड़े राज्य उसके हाथ से निकल चुके हैं। ऐसे में वह भी अपने शासन वाले सूबे को बचाने की हरसंभव कोशिश करेगी। राहुल गांधी के नेतृत्व की सबसे कड़ी परीक्षा कर्नाटक में ही होगी। Mamata Banerjee, Lalu Prasad सन् 2017 में भाजपा के खिलाफ विपक्ष की व्यापक मोर्चेबंदी की बातें तो हुईं पर वे अंजाम तक नहीं पहुंचीं। तृणमूल नेत्री और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सन् 2019 के मद्देनजर विपक्ष की व्यापक गोलबंदी की जरुरत पर बल दिया। विपक्षी एकता के दूसरे प्रमुख पैरोकार रहे लालू प्रसाद यादव अब चारा घोटाले के मामले में जेल जा चुके हैं। दक्षिण के दिग्गज और डीएमके सुप्रीमो करुणानिधि लंबे समय से बीमार चल रहे हैं। अन्य दलों के बीच इस मुद्दे पर गहरे अंतर्विरोध हैं। देश के दो राज्यों में शासन करने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो में ही अब तक सहमति नहीं बन सकी है। यूपी की दो बड़ी विपक्षी पार्टियां-सपा और बसपा अब भी एक-दूसरे से दूरी बनाये हुए हैं। बीते कुछ बरसों से इन दोनों पार्टियों के नेताओं को केंद्रीय जांच एजेंसियों का डर सताता रहता है। इनके नेताओं पर भ्रष्टाचार के कतिपय मामले लंबित बताये जाते हैं। इस वजह से इन्हें अपने राजनीतिक हितों पर भी समझौता करने के लिये विवश होना पड़ता है। ऐसे दौर में विपक्षी एकता का सारा दारोमदार कांग्रेस पर है। क्या राहुल अपनी मां सोनिया गांधी के नक्शेकदम पर चल सकेंगे? क्या वह सन् 2004 की तरह यूपीए जैसा एक नया सक्रिय और सशक्त प्लेटफार्म तैयार कर सकेंगे? और क्या ऐसा कोई मोर्चा जनता के बीच स्वीकार्यता हासिल कर सकेगा? सन् 2018 में इन सवालों का भी जवाब मिलेगा। देेखना होगा कि नये वर्ष में मुख्य विपक्षी पार्टी-कांग्रेस किसी बड़े विपक्षी गठबंधन की जमीन तैयार कर पाती है या नहीं! अगर ऐसा नहीं होता तो प्रधानमंत्री मोदी की भाजपा के विजय-रथ को रोकना फिलहाल तो मुमकिन नहीं दिखता। अपने पाठकों और तमाम शुभचिंतकों का आभार और नये वर्ष की शुभकामना" - 2018: राजनीति में तनाव, टकराव और चुनावी तैयारी का साल http://tz.ucweb.com/12_452FD

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